फ़ोन या टीवी खरीदने से पहले यदि आपने कभी रिसर्च या खोजबीन की होगी तो आप इन शब्दों से जरूर परिचित होंगे। वैसे तो ज्यादातर एंट्री लेवल फ़ोन्स और बजट टीवी में आपको लिक्विड क्रिस्टल डिस्प्ले यानि एलसीडी डिस्प्ले हीं देखने मिलते हैं। पर यदि आप अपनी जेब थोड़ी ढीली करने को तैयार हैं तो आप एलसीडी की जगह OLED डिस्प्ले वाला टीवी या फ़ोन भी खरीद सकते हैं।
यदि आप इस डिस्प्ले टेक्नोलॉजी के बारे में ज्यादा नहीं जानते हैं तो आज हम आपको इन अमोलेड डिस्प्लेस के बारे में विस्तार से जानकारी देने वाले हैं। इसके साथ साथ हम आपको यह भी बताएँगे की OLED मैं ऐसी क्या ख़ास बातें होती हैं जो लोग इसके लिए ज्यादा ऱकम खर्च करने के लिए भी तैयार हो जाते हैं।
डिस्प्ले टेक्नोलॉजी की बात करें तो सबसे पहले CRT यानि कैथोड रे ट्यूब वाले टीवी का बोलबाला था जो वही टीवी है जो आपने अपने दादा परदादा के ज़माने में देखा होगा। जो अपने आकार और वजन में एक माइक्रोवेव ओवन से लेकर एक वाशिंग मशीन के साइज के भी हो सकते थे।
एलसीडी डिस्प्ले इनके बाद आये जिन्होंने एक टीवी के आकार को इतना कम कर दिया की वह दीवारों पर लगे किसी पेंटिंग की तरह टंगे जाने लगे। एलसीडी के साथ साथ बाकि डिस्प्ले टेक्नोलॉजीज भी आईं जिनमे प्लाज्मा टीवी भी शामिल हैं। प्लाज्मा टीवी में Neon और Xenon जैसे गैसों से भरे माइक्रोस्कोपिक ग्लास ट्यूब का इस्तेमाल किया जाता था।
प्लाज्मा डिस्प्लेस के बारे में हम कभी और बात करेंगे क्योंकि प्लाज्मा टीवी का प्रोडक्शन अब न के बराबर होता है। प्लाज्मा टीवी में लगने वाले कम्पोनेटंस को बनाने में काफी खर्च आता था और ये काफी महंगे भी होते थे जिस कारण से लगभग हर बड़ी टीवी निर्माता कंपनी ने इनकी मैन्युफैक्चरिंग को बंद कर दिया है।
लेकिन एलसीडी तकनीक ने टीवी मार्किट को ऐसे कैप्चर किया की उसकी जगह अभी तक कोई डिस्प्ले टेक्नोलॉजी नहीं ले पाई है। फिर ओलेड OLED जैसी तकनीक में ऐसा क्या है जो इसे LCD से बेहतर बनाती है। और क्या सच में ओलेड एलसीडी की तुलना में बेहतर परफॉरमेंस और पिक्चर क्वालिटी दे पाते हैं। लेकिन सबसे पहले आपको बता दें की ओलेड क्या होता है।
ओलेड ( OLED ) का इतिहास
ओलेड मैटेरियल्स की खोज तब हुई जब एक फ्रेंच वैज्ञानिक Andre Bernanose ने देखा की Acridine डाई जैसे जैविक यानि आर्गेनिक केमिकल से बने क्रिस्टल को जब बिजली दी जाती है तो उसमें से हलकी रौशनी निकलती है। इसके बाद 1960 में न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी के फिजिसिस्ट मार्टिन पोप ने देखा की Anthracene, जो की कोयले के टार से निकाला गया एक केमिकल होता है, उस से बने क्रिस्टल्स भी बिजली देने पर ऐसे हीं प्रकाश छोड़ते हैं।
इसके बाद इसी रिसर्च पर आगे काम करते हुए Steven Van Slyke और Ching Wan Tang ने पहला ओलेड डिवाइस बनाया। ये दोनों वैज्ञानिक कैमरा और फोटग्राफिक फिल्म बनाने वाली अमेरिकन कंपनी Eastman Kodak के लिए काम करते थे।
यदि ओलेड टेक्नोलॉजी का उपयोग करके बने डिस्प्ले की बात करें तो ये सबसे पहले एक कार के स्टीरियो सिस्टम बनाने वाली कंपनी पायनियर ने बनाया था। पायनियर ने 1997 में अपने कार स्टीरियो सिस्टम के छोटे डिस्प्ले के लिए इसे बनाया था। लेकिन ये डिस्प्ले केवल एक रंग की रौशनी पैदा कर सकते थे।
फुल कलर ओलेड डिस्प्ले की बात करें तो ये सबसे पहले 2003 में आई थी। इसे ईस्टमैन Kodak ने अपने डिजिटल कैमरा Kodak’s EasyShare LS633 के डिजिटल डिस्प्ले को बनाने के लिए उपयोग किया था।
ओलेड टीवी की बात करें तो सबसे पहला ओलेड टीवी सोनी कंपनी ने 2008 में लॉन्च किया था।
ओलेड (OLED) डिस्प्ले क्या होता है
ऑर्गेनिक लाइट एमिटिंग डायोड को शार्ट में ओलेड कहते हैं। ऑर्गेनिक शब्द का हिंदी में अनुवाद करें तो जैविक होता है यानि ऐसा मटेरियल जो जीवों में पाए जाने वाले एलिमेंट्स जैसे कार्बन और हाइड्रोजन एटमों के बॉन्ड से बना होता है।
जैसा हमने पहले बताया की ओलेड में ऐसे मटेरियल का प्रयोग किया जाता है जो बिजली देने पर प्रकाश उत्पन्न करते हैं। एक ओलेड टीवी के पिक्सेल्स को इन्ही केमिकल्स से बनाया जाता है। एक ओलेड टीवी के काम करने के तरीके को समझने से पहले आपको एक एलसीडी टीवी के काम करने के तरीके को समझना होगा।
नोट: कुछ टीवी बनाने वाली कंपनियां एलसीडी टीवी को LED टीवी भी कहती हैं लेकिन इन सभी टीवी में एलसीडी पैनल्स का हीं इस्तेमाल किया जाता है। इनमे LED बल्ब्स का प्रयोग केवल बैक लाइटिंग के लिए किया जाता है। LED टीवी और एलसीडी टीवी में बस नाम मात्र का हीं फर्क होता है। आप हर LED टीवी को एलसीडी टीवी भी कह सकते हैं।
LCD टीवी की बात करें तो इसके पिक्सेल लिक्विड क्रिस्टल्स से बने होते हैं। जिन्हें दो ग्लास लेयर के बीच किसी सैंडविच की तरह रख कर बनाया जाता है। लिक्विड क्रिस्टल्स को बिजली देकर आप इनमे से गुज़रने वाली रौशनी को जरुरत अनुसार कम या ज्यादा कर सकते हैं। लिक्विड क्रिस्टल के लेयर को आप एक ऐसे ग्लास की खिड़की की तरह समझें जो पारदर्शी होने के साथ साथ, जरूरत पड़ने पर रौशनी को रोकने के लिए पूरा काला भी हो सकता है। आगे हम देखेंगे की कैसे इन लिक्विड क्रिस्टल्स का इस्तेमाल एलसीडी पैनल या टीवी बनाने के लिए किया जाता है।
नीचे दिए चित्र में आप एक एलसीडी टीवी के अंदर लगे अलग अलग लेयर्स को देख सकते हैं। एलसीडी में सबसे पीछे बैक लाइट लेयर होती है जिसमें सफ़ेद रौशनी उत्पन्न करने के लिए LED लगे होते हैं। इसके बाद पोलेराईज़र लेयर लगी होती है जो रौशनी के केवल एक पोलेराइजेशन को पास होने देती है। पोलेराईज़र लेयर को आप एक तरह का लाइट फ़िल्टर भी कह सकते हैं।
इसके बाद इलेक्ट्रोड लेयर होती है जो लिक्विड क्रिस्टल लेयर में लगे डॉट्स यानि पिक्सेल्स को सिग्नल यानि करंट भेजने के लिए होती है। इसके बाद एक एलसीडी टीवी का मुख्य भाग होता है जिसे लिक्विड क्रिस्टल लेयर भी कहा जाता है। इस लिक्विड क्रिस्टल लेयर में लगे पिक्सेल एक कैलकुलेटर के डिस्प्ले में दिखने वाले पिक्सेल जैसे हीं होते हैं।
बस इनका आकार, आयताकार यानि रेक्टेंगुलर होता है और ये आपके बालों से भी महीन होते हैं। परन्तु यहाँ इनका प्रयोग किसी डिजिट को दिखाने के लिए नहीं बल्कि एक पिक्सेल को बनाने के लिए किया जाता है। एक पिक्सेल में लगे एलसीडी सैंडविच को तीन भागों में बाँट दिया जाता है। जो एक पिक्सेल के हरे, नीले और लाल रंग के सब-पिक्सेल को अलग अलग कंट्रोल करने के लिए होते हैं।
इसके आगे टॉप इलेक्ट्रोड की लेयर होती है। हर लिक्विड क्रिस्टल का एक पॉजिटिव और एक नेगेटिव टर्मिनल होता है जिसे बॉटम और टॉप इलेक्ट्रोड लेयर के साथ जोड़ा जाता है। लिक्विड क्रिस्टल लेयर के आगे पीछे आपको यही दोनों इलेक्ट्रोड लेयर देखने को मिलते हैं। एक एलसीडी टीवी के डिस्प्ले में लगे लिक्विड क्रिस्टल लेयर को बिजली इन्ही दो इलेक्ट्रोड लेयर द्वारा पहुंचाई जाती है। इनमे हर पिक्सेल के लिक्विड क्रिस्टल लेयर में महीन ट्रांजिस्टर स्विच और कपैसिटर लगे होते हैं जो इलेक्ट्रोड द्वारा भेजे गए करंट को थोड़े देर के लिए स्टोर करके रखते हैं और लिक्विड क्रिस्टल को एक अवस्था में बनाये रखते हैं जब तक उसको दूसरा सिग्नल न मिल जाए।
इसके बाद हॉरिजॉन्टल पोलेराइज़र की लेयर होती है जो लाइट को एक बार फिर से फ़िल्टर करती है। इसके बाद आपको कलर फ़िल्टर लेयर देखने को मिलता है जिसमे लाल, हरे और नीले रंग के कलर फ़िल्टर लगे होते हैं जो हर पिक्सेल को उसका रंग देते हैं। एलसीडी टीवी के तस्वीर को लिक्विड क्रिस्टल लेयर में लगे लाखों लिक्विड क्रिस्टल डॉट्स हीं बनाती है और कलर फ़िल्टर इसको रंग देने के लिए लगाए जाते हैं।
एक 4K रेसोलुशन वाले एलसीडी टीवी में ऐसे कुल 82,94,400 पिक्सेल्स लगे होते हैं। इनमे से हर पिक्सेल में 3 लिक्विड क्रिस्टल और 3 कलर फ़िल्टर (लाल, हरा और नीला) लगे होते हैं। तस्वीर बनाने के लिए केवल लिक्विड क्रिस्टल लेयर को सिग्नल यानि करंट भेजा जाता है। रौशनी बैक लाइट लेयर से निकल कर पोलेराईज़र लेयर से होते हुए लिक्विड क्रिस्टल लेयर तक आती है।
फिर लिक्विड क्रिस्टल डॉट्स पीछे से आने वाली रौशनी के रास्ते में अवरोध यानि रुकावट पैदा कर के तस्वीर का निर्माण करते हैं। एक पिक्सेल में लगा लिक्विड क्रिस्टल डॉट कितनी रौशनी को आगे जाने देगा वो उसको भेजे गए करंट पर निर्भर करता है। लिक्विड क्रिस्टल लेयर्स को छोड़कर बाकि के सभी लेयर्स रौशनी को बड़ी आसानी से पास होने देते हैं।
यदि किसी पिक्सेल को लाल रंग में दिखाना हो तो उसके हरे और नीले लिक्विड क्रिस्टल सब पिक्सेल्स को सिग्नल भेजा जाता है जो रौशनी को आगे जाने से रोक देते हैं। लेकिन लाल रंग के सब पिक्सेल में ऐसा नहीं किया जाता और वो रौशनी को आगे जाने देता है जो लाल रंग के कलर फ़िल्टर से गुजरने के बाद स्क्रीन पर लाल नज़र आती है।
यदि किसी पिक्सेल को सफ़ेद रौशनी में जलना हो तो इसके तीनो सब पिक्सेल रौशनी को आगे जाने देते हैं। जब लाल, हरा और नीले रंग के तीनों सब पिक्सेल एक साथ जलते हैं तो वह पिक्सेल सफ़ेद नज़र आता है।
ओलेड टीवी के काम करने का तरीका
ओलेड टीवी को इतने लेयर्स की जरूरत नहीं होती क्योंकि ओलेड टीवी का हर एक पिक्सेल अपनी रौशनी खुद उत्पन्न कर सकता है। यानि इसे ऐसे समझें की ओलेड टीवी को बैक लाइट लेयर, बॉटम पोलेराईज़र लेयर, लिक्विड क्रिस्टल लेयर और कलर फ़िल्टर लेयर की जरूरत नहीं होती।
इन आर्गेनिक केमिकल के वेफ़र को सीधे इलेक्ट्रोड लेयर से जोड़ा जाता है जो इसके ऊपर और नीचे लगे होते हैं। फिर ऊपर से पोलेराईज़र लगा होता है जो रौशनी को यूनिफॉर्म तरीके से बाहर आने देता है और स्क्रीन पर बाहर से होने वाली रौशनी के रिफ्लेक्शंस को भी रोकता है।
ओलेड टीवी और एलसीडी टीवी के पिक्सेल डिज़ाइन में आपको यही मुख्य विभिन्नता देखने को मिलेगी। बैक लाइट न होने के कारण एक ओलेड टीवी को काफी पतला बनाया जा सकता है।
अमोलेड क्या होता है
ओलेड स्क्रीन जब नए नए बनाये जाते थे तो इसके अंदर लगे पिक्सेल्स को कण्ट्रोल करने के लिए जिस तकनीक़ का इस्तेमाल किया जाता था उसे पैसिव मैट्रिक्स कहते थे इसमें ओलेड पिक्सेल्स को हॉरिजॉन्टल और वर्टीकल इलेक्ट्रोड ग्रिड के बीच में सीधे लगाया जाता था।
किसी पिक्सेल को जलाने के लिए उसके ऊपर और नीचे लगे पॉजिटिव और नेगेटिव इलेक्ट्रोड में सिग्नल यानि करंट भेजा जाता था। परन्तु इस डिज़ाइन वाले ओलेड का इस्तेमाल टीवी या मॉनिटर बनाने के लिए नहीं किया जा सकता था। ये केवल कैलकुलेटर, स्टीरियो सिस्टम, घडी, mp3 प्लेयर आदि के छोटे डिस्प्ले बनाने के लिए हीं इस्तेमाल किये जा सकते थे।
टीवी और मॉनिटर जैसे ज्यादा रेसोलुशन वाले डिस्प्ले की जरूरत को पूरा करने के लिए एक्टिव मैट्रिक्स ओलेड को डेवलप किया गया जिसमें TFT यानि थिन फिल्म ट्रांसिस्टर्स स्विच ऐरे का उपयोग होता था जो हर एक पिक्सेल के साथ में लगे होते थे। इसके साथ इनमें करंट यानि चार्ज को स्टोर करने के लिए एक कपैसिटर भी लगा होता था। ओलेड का TFT ऐरे भी एक एलसीडी से एकदम मिलता जुलता होता है।
एक एक्टिव मैट्रिक्स TFT ऐरे वाले ओलेड स्क्रीन के हर पिक्सेल को अलग अलग सिग्नल भेजा जा सकता था और कण्ट्रोल किया जा सकता था। आज कल मैनुफैक्चर होने वाले लगभग सभी ओलेड डिस्प्ले इसी TFT ऐरे वाले एक्टिव मैट्रिक्स अमोलेड डिस्प्ले का प्रयोग करते हैं। पैसिव मैट्रिक्स अमोलेड का प्रयोग बड़े रेसोलुशन के डिस्प्ले में अब न के बराबर होता है।
आप में से कुछ लोगों ने सुपर अमोलेड नाम भी सुना होगा जो सैमसंग द्वारा बनाये गए स्मार्ट फ़ोनों में लगाए जाते हैं। सैमसंग भी अपने डिस्प्ले में एक्टिव मैट्रिक्स ओलेड का हीं इस्तेमाल करता है। लेकिन उसके डिस्प्ले में ऊपर से लगने वाले कपैसिटिव टच स्क्रीन लेयर को ढकने वाले ग्लास लेयर को हटा दिया जाता है। और ओलेड और कपैसिटिव टच स्क्रीन लेयर दोनों को एक ग्लास लेयर से हीं ढका जाता है। इस से फ़ोन स्क्रीन पतला और वज़न में भी कम हो जाता है।
इसके अलावा ओलेड स्क्रीन एलसीडी की तुलना में कुछ मामलों में बेहतर होते हैं। आइये हम नीचे इन्हीं विशेषताओं को विस्तार से समझते हैं।
ओलेड में मिलता है बेटर कंट्रास्ट
यदि डिस्प्ले टेक्नोलॉजी के सन्दर्भ में बात करें तो कंट्रास्ट एक डिस्प्ले में अगल बगल दिख रहे दो रंगो के बीच के फर्क को कहा जाता है। इसे आप नीचे दिए तस्वीर की मदद से बेहतर समझ पाएंगे। इसे यदि टेक्निकल भाषा में समझाएं तो एक डिस्प्ले के सबसे ब्राइट वाइट रंग और सबसे डिम ब्लैक रंग दिखाने की काबलियत को कंट्रास्ट कहते हैं।
हायर कंट्रास्ट वाले डिस्प्ले में पिक्चर क्वालिटी बेहतर मिलती है और इस डिपार्टमेंट में ओलेड एलसीडी से काफी बेहतर होते हैं।
डीप ब्लैक रंग ओलेड में बढ़िया दीखता है
जैसा हमने पहले बताया की ओलेड में बैक लाइट का प्रयोग नहीं किया जाता यानि इसमें लाइट ब्लीड की समस्या नहीं होती। लाइट ब्लीड तब होता है जब एक एलसीडी पैनल के किनारों पर आपको हलके धब्बे नज़र आते हैं, जहाँ रौशनी कम या ज्यादा हो सकती है। आमतौर पर लाइट ब्लीड आपको नज़र नहीं आती लेकिन यदि आप के स्क्रीन पर ब्लैक या सफ़ेद रंग दिखाया जा रहा हो तो आपको ये लाइट ब्लीड ज्यादा आसानी से नज़र आता है।
ओलेड में आपको इस समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है क्योंकि इसमें बैक लाइट का प्रयोग नहीं किया जाता। इस खासियत के कारण ओलेड में ब्लैक यानि काला रंग ज्यादा गहरा नज़र आता है। इसे आप नीचे दिए गए तस्वीर से भी बेहतर समझ सकते हैं।
इसके साथ साथ एक एलसीडी पैनल में बैक लाइट से आने वाली रौशनी को लिक्विड क्रिस्टल डॉट्स पूरी तरह से ब्लॉक नहीं कर पाते हैं। यदि स्क्रीन पर गहरा काला रंग दिखाना हो तो भी उसमें से कुछ रौशनी आर पार हो हीं जाती है। एलसीडी मैनुफैक्चरर्स अब इस समस्या से निपटने के लिए लोकल डिम्मिंग का प्रयोग करने लगे हैं जिसमें एक LCD पैनल के बैक लाइट में लगे उन LED बल्बों को बंद कर दिया जाता है जहाँ पर गहरा ब्लैक रंग दिखाना होता है।
पर ऐसा करने के लिए LED बल्बों की संख्या को भी बढ़ाना पड़ता है और उनके आकार को भी काफी छोटा करना होता है। जिस कारण ऐसे एलसीडी टीवी आपको महंगे दाम पर मिलते हैं।
व्यूइंग एंगल ओलेड में बेहतर होता है
यदि आपने शुरुआती दिनों में एलसीडी टीवी या मॉनिटर का इस्तेमाल किया होगा तब आप इस समस्या से जरूर परिचित होंगे। एलसीडी पैनल को यदि आप उसके सामने से हट कर किनारों के तरफ खड़े होकर देखें तो आपको स्क्रीन पर दिख रहे तस्वीर के रंगो में फर्क साफ़ नज़र आएगा।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि एलसीडी पैनल में रौशनी बैक लाइट पैदा करता है और उसके आगे लिक्विड क्रिस्टल लेयर किसी खिड़की की तरह काम करता है और रौशनी को एक ख़ास पोलेराइज़ेशन में हीं बाहर आने देता है। ओलेड में ये समस्या नहीं होती और आप हर एंगल से तस्वीर को एक जैसे रंग का ही पाएंगे।
लेकिन ऐसा भी नहीं है की हर तरह के एलसीडी टीवी में आपको व्यूइंग एंगल कम मिलेगा। यदि आप IPS LCD डिस्प्ले वाला पैनल लेते हैं तो आपको ओलेड जितना तो नहीं लेकिन लगभा 170 डिग्री का व्यूइंग एंगल मिल जाता है। इसके साथ साथ आईपीएस डिस्प्ले वाले एलसीडी में कलर कंट्रास्ट भी बढ़िया मिलता है। पर आईपीएस डिस्प्ले वाले एलसीडी टीवी के लिए आपको थोड़ी ज्यादा कीमत देनी पड़ सकती है।
OLED स्क्रीन कम बिजली की खपत करते हैं
वैसे तो एलसीडी टीवी भी ज्यादा बिजली की खपत नहीं करते हैं लेकिन यदि ओलेड से तुलना करें तो एलसीडी लगभग दुगनी बिजली की खपत करते हैं। एलसीडी टीवी के बैक लाइट में लगे LED बल्ब हर वक़्त जलते रहते हैं चाहे आपका टीवी स्क्रीन पर तस्वीर दिखा रहा हो या नहीं, लेकिन ओलेड में लगे और्गेनिक डायोड अपनी रौशनी खुद उत्पन्न कर सकते हैं। इसलिए उन्हें जरूरत होने पर हीं जलना होता है और जरूरत न होने पर इन्हें बंद भी रखा जा सकता है।
इसके अलावा आप का टीवी बिजली की AC सप्लाई पर चलता है पर यदि आपके फ़ोन की बात करें तो वो बैटरी से ऊर्जा लेता है और उसमें बैटरी का लम्बा चलना जरूरी होता है। ऐसे में यदि आपके फ़ोन स्क्रीन में एक ओलेड डिस्प्ले लगा है तो वो आपके बैटरी को लगभग 40 से 50 प्रतिशत तक लम्बा चला सकता है। ओलेड स्क्रीन में बैक लाइट के न होने का ये सबसे बड़ा फायदा होता है।
इन सभी विशेषताओं को देख कर आपको यह लग सकता है की ओलेड एलसीडी स्क्रीन से हर तरह से बढियाँ होता है। यह सच है की ओलेड स्क्रीन अपनी पिक्चर क्वालिटी के लिए जाने जाते हैं लेकिन कुछ मामलो में ये एलसीडी के मुकाबले में पीछे रह जाते हैं आइये जानते हैं की किस डिपार्टमेंट में एलसीडी स्क्रीन ओलेड से बेहतर होते हैं।
एलसीडी बजट फ्रेडंली होता है
यदि आप ओलेड टीवी खरीद रहें हैं तो आपको वह उसी रेसोलुशन और आकार के एलसीडी टीवी से लगभग दुगने या तिगुने दाम पर मिल सकता है। ओलेड को बनाने में लगने वाले मैटेरियल्स और कॉम्पोनेन्टस को मैन्युफैक्चर करने का खर्च ज्यादा आता है जिसकी कीमत अंत में आपको चुकानी पड़ती है।
एलसीडी टीवी लगभग हर बजट और रेसोलुशन में उपलब्ध हैं और आप अपनी जरूरत के हिसाब से इन्हें बिना अपनी जेब ज्यादा ढीली किये खरीद सकते हैं।
टोटल ब्राइटनेस की बात करें तो एलसीडी बेहतर होता है
इस शीर्षक को पढ़कर आपको हैरानी हो सकती है लेकिन यदि मैक्सिमम ब्राइटनेस लेवल की बात करें तो एक एलसीडी टीवी को ओलेड के मुकाबले में बहोत ज्यादा ब्राइट बनाया जा सकता है। ओलेड में इस्तेमाल होने वाले और्गेनिक केमिकल्स की बात करें तो समय के साथ उनकी रौशनी उत्पन्न करने की क्षमता में कमी आती रहती है। ओलेड के ब्लू पिक्सेल में इस्तेमाल होने वाले केमिकल में यह समस्या सबसे ज्यादा होती है।
इसके अलावा एक फ़ोन में इस्तेमाल होने वाले ओलेड स्क्रीन पर जब सूरज की रौशनी पड़ती है तो अल्ट्रा वायलेट यानि UV रौशनी से भी स्क्रीन की लाइफ कम होती रहती है। वहीँ एलसीडी अपनी रौशनी के लिए LED का उपयोग करते हैं जो दशकों तक बिना ख़राब हुए काम करते रहते हैं।
स्क्रीन बर्न की समस्या कम होती है
स्क्रीन बर्न तब होता है जब आपके डिस्प्ले में मौजूद पिक्सेल सही रंग नहीं बना पाते। एक एलसीडी टीवी में ऐसा तब होता है जब लिक्विड क्रिस्टल लेयर में कोई खराबी आ जाए। लेकिन ओलेड स्क्रीन में ये समस्या एलसीडी की तुलना में ज्यादा देखने को मिलती है। ओलेड स्क्रीन को यदि आप उसके मैक्सिमम ब्राइटनेश पर ज्यादा इस्तेमाल करें तो कुछ सालों बाद उसमें स्क्रीन बर्न जैसी समस्या भी खड़ी हो सकती है।
ओलेड में स्क्रीन बर्न तब होता है जब उसके पिक्सेल में मौजूद केमिकल समय से पहले ख़राब हो जाते हैं और उनमे से निकलने वाली रौशनी भी कम हो जाती है। जब ऐसा होता है तो आपको स्क्रीन पर धब्बे नज़र आ सकते हैं। यह समस्या ज्यादातर स्मार्टफोन के नोटिफिकेशन बार और स्क्रीन नेविगेशन बटन वाले हिस्सों में ज्यादा देखने मिलती है क्योंकि वहां लगे पिक्सेल को हमेशा एक रंग में जलते रहना पड़ता है।
लेकिन ओलेड में यह समस्या तभी देखने मिलती है जब आप अपने फ़ोन या टीवी स्क्रीन की ब्राइटनेस लेवल 80 प्रतिशत के ऊपर रखते हैं। यदि आप अपने ब्राइटनेस सेटिंग को 50 प्रतिशत या उस से कम रखें तो आपको यह समस्या आने की सम्भावना भी बहुत कम हो जाती है।
एलसीडी ज्यादा लम्बे चलते हैं
एलसीडी पैनल की लाइफ की बात करें तो ये ओलेड से ज्यादा लम्बे समय तक चल सकते हैं। एक औसत एलसीडी टीवी 20 हज़ार से 30 हज़ार घंटों तक चलता है। ओलेड की लाइफ लगभग 15 हज़ार घंटे तक हो सकती है।
यदि आप कम ब्राइटनेस पर अपने स्क्रीन को चलाएं तो ओलेड भी आपको एक एलसीडी टीवी जितना हीं लम्बा लाइफ स्पैन देगा।