स्पेस के बारे में आज हमारी जानकारी पहले से कहीं बेहतर हो गयी है। आज नासा, यूरोपियन स्पेस एजेंसी, JAXA और इसरो जैसे स्पेस रिसर्च संस्थान न केवल पृथ्वी के ऑर्बिट में बल्कि मार्स यानि मंगल और शुक्र जैसे बाकि ग्रहों पर भी अपने उपग्रहों को भेजते रहते हैं और इनपर हर दिन कोई न कोई नए खोज करते रहते हैं।
आज हम ऐसे युग में रह रहे हैं जहाँ वोयेजर 1 जैसे स्पेसक्राफ्ट 23 बिलियन किलोमीटर की यात्रा करके सोलर सिस्टम के बाहर तक जा पहुंचे हैं और उसके बाहर खोज करने में लगे हैं। एस्ट्रोनॉमी और विज्ञान के क्षेत्र में इतनी प्रगति हो गयी है लेकिन आज भी हमारे बीच में अंतरिक्ष यानि स्पेस से सम्बंधित कई मिथक फैले हैं।
और कुछ मिथक ऐसे भी हैं जिन्हे फ़ैलाने में ऐसी फिल्मों और टीवी शोज का हाथ है जो साइंस के नाम पर साइंस फिक्शन परोसती हैं। बचपन में शायद आपने भी ऐसी फ़िल्में देखी होंगी जिसमें एक वैज्ञानिक अपने छत पर लगे डिश ऐन्टेना की मदद से दूसरे गैलेक्सी में मौजूद ग्रहों तक सन्देश भेज देता है। वहां मौजूद एलियन न केवल उसके सन्देश का जवाब देते हैं बल्कि अपनी जान जोख़िम में डालकर धरती तक भी चले आते हैं।
चलिए हम ऐसी फिल्मों के बारे में ज्यादा बात ना हीं करें तो अच्छा है। आइये जानते हैं स्पेस से जुड़े इन बड़े मिथकों को जिन्हें यदि आप अभी तक सच मानते आये थे तो आज अपनी जानकारी में थोड़ा करेक्शन या सुधार कर लीजियेगा।
सूर्य का रंग पीला या नारंगी होता है
हमारे स्कूल की किताबों में बना सूरज इसी रंग का होता है। और बचपन से सूरज को हम अपनी ड्रॉइंग बुक में इसी रंग में रंगते आये हैं। यह सच है की सूरज धरती से पीला या नारंगी रंग का हीं दिखाई देता है पर ये हमारे वातावरण में मौजूद गैसों के मोलेक्युल्स और रौशनी के स्कैटरिंग यानि प्रकीर्णन के कारन होता है।
यदि आप धरती के वातावरण से बाहर जा कर यानि स्पेस से सूरज को देखें तो आपको इसका रंग सफ़ेद दिखाई देगा। सूरज की रौशनी में लगभग सभी वेवलेंथ्स की रौशनी मौजूद होती है जो साथ मिलकर सफ़ेद रंग बनाती हैं। यही कारण है की सूरज का असल रंग पीला न होकर एक जलते हुए LED बल्ब जैसा सफ़ेद होता है।
स्पेस में आवाज़ सुनाई देती है
यदि आपने स्टार वार्स फिल्में देखी हैं तो आपने स्पेस में एक दूसरे से लड़ते स्पेस क्राफ्ट्स को जरूर देखा होगा। अक्सर ये स्पेस क्राफ्ट्स एक दूसरे पर लेज़र वेपन्स से हमला करती दिखाई जाती हैं। उस लेज़र वेपन यानि हथियार की आवाज़ आपको साफ़ साफ़ सुनाई देती है। लेकिन असल में ऐसा होना संभव नहीं है।
धरती पर आवाज़ तब होती है जब कोई वस्तु वाइब्रेट करती है। यह वाइब्रेशन तब होते हैं जब कोई सजीव प्राणी या निर्जीव वस्तु एनर्जी रिलीज़ करती है। एक वोल्केनो यानि ज्वालामुखी के फटने पर आपको उसकी आवाज़ हज़ारों किलोमीटर तक सुनाई दे सकती है। क्योंकि आवाज़ को एक जगह से दूसरे स्थान पर जाने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता होती है। हमारा वायुमंडल एक ऐसा हीं माध्यम है जो आवाज़ को एक से दूसरे जगह पर पहुंचाता है।
आवाज़ जल, वायु, धातु जैसे माध्यमों में बड़ी आसानी से ट्रेवल कर सकती है। लेकिन अंतरिक्ष में आवाज़ का एक जगह से दूसरे जगह पर जाने का कोई माध्यम नहीं होता। ऐसे में अंतरिक्ष में होने वाले किसी विस्फोट की या कोई भी आवाज़ को आप बिलकुल नहीं सुन सकते।
स्पेस की खाली जगह पर कुछ नहीं होता
स्पेस में आपको असंख्य तारे और गैलेक्सी जरूर मिल जाएंगे परन्तु इनके बीच में काफी दूरी होती है। यदि हमारे चाँद को हीं लें तो वो हमसे 384,400 km की दूरी पर मौजूद है। ऐसे में कभी आपके मन में ये विचार आया है की स्पेस में जिस जगह कम्पलीट वैक्यूम यानि कुछ नहीं होता है वहां क्या मौजूद होता है। क्या वो जगह सच में खाली होती है।
यदि आपको लगता है की वहां कुछ नहीं होता, तो आप गलत हैं। स्पेस में लगभग हर जगह आपको इक्का दुक्का हाइड्रोजन एटम्स, प्लाज्मा कण, न्यूट्रिनोस, फोटोन्स, माइक्रोवेव यानि इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन, कॉस्मिक रेज़, डस्ट आदि, मिल जायेंगे। यदि आप स्पेस में अपने स्पेस क्राफ्ट के बाहर केवल स्पेस सूट में हों तो ये कॉस्मिक रेज़ आपके शरीर के सेल्स में मौजूद डीएनए को भी नुक्सान पहुंचा सकती हैं। लेकिन इनकी संख्या अधिक नहीं होती और इनसे होने वाली क्षति को हमारा शरीर ठीक भी कर लेता है।
स्पेस में बिना स्पेस सूट के आप फट जायेंगे
यह मिथक आप ने कई बार सुना होगा और कई हॉलीवुड की फिल्मों में तो ऐसा होते हुए भी दिखाया गया है। इसके साथ साथ आपने यह भी सुना होगा की बिना स्पेस सूट के आपका खून उबलने लगेगा और आपकी आँखे बाहर की ओर निकल आएँगी।
हमारा शरीर हमारे वातावरण से पड़ने वाले भार को सहने के लिए बना होता है। स्पेस में ऐसा कोई वातावरण नहीं होता और इसलिए हमें स्पेस में एक स्पेस सूट की जरूरत पड़ती है। लेकिन ऐसा नहीं है की यदि हमारा स्पेस सूट न हो तो हम किसी गुब्बारे की तरह फट पड़ेंगे। हमारे शरीर की मांस पेशियाँ और स्किन हमारे खून से और दिल से पड़ने वाले रक्तचाप यानि दबाव को अच्छे से संभाल सकती हैं।
ऐसे में यदि आपका स्पेस सूट न हो तो आप फट कर तो नहीं पर ऑक्सीजन की कमी से पहले हीं मर चुके होंगे। हाँ, लेकिन स्पेस सूट न हो तो ऑक्सीजन मास्क होते हुए भी आपका सांस लेना थोड़ा मुश्किल जरूर हो जायेगा।
स्पेस में बिना स्पेस सूट के जम कर बर्फ़ बन जायेंगे
स्पेस का औसत तापमान लगभग -270°C होता है। यदि ऐसा तापमान धरती पर हो जाए तो धरती पर जीवन को ख़त्म होने में कुछ घंटो का हीं समय लगेगा। लेकिन आपको यदि यह लगता है की स्पेस में भी आपके साथ ऐसा हीं होगा तो आप गलत हैं।
स्पेस का औसत तापमान उस वस्तु का होता है जो अपने अंदर से ऊर्जा का उत्सर्जन नहीं कर रहा हो और उसको ऊर्जा देने वाला और कोई सोर्स उसके आस पास मौजूद न हो। लेकिन यदि हमारे शरीर की बात करें तो वो कुछ देर के लिए अपनी ऊर्जा की जरूरत को अपने अंदर स्टोर फैट से पूरा कर सकता है।
और स्पेस में इस ऊर्जा को आपके शरीर से अलग करने के लिए कोई वातावरण नहीं होता। आपका शरीर केवल एक तरीके से अपनी ऊर्जा यानि गर्मी खोयेगा जिसे रेडिएशन कहते हैं। ऊपर से यदि आपके शरीर पर सूरज की किरणे पड़ रहीं हैं तो आपका तापमान लगभग 150 से 400 डिग्री सेल्सियस तक भी बढ़ सकता है। ऐसे में आपके गर्मी से और ऑक्सीजन की कमी से मरने की सम्भावना ज्यादा है।
आप स्पेस में जम कर तभी मरेंगे जब आपके पास ऑक्सीजन की पूरी सप्लाई है पर स्पेस सूट और ऊर्जा का कोई साधन नहीं है। यदि आपके पास ऑक्सीजन नहीं है तो आप जमने से पहले ऑक्सीजन ना मिलने के कारण हीं मर चुके होंगे। यदि आप किसी यान के अंदर हैं जो सूरज से काफी दूर है और आपके पास ऊर्जा का कोई साधन नहीं है तब आपके जम कर मरने की सम्भावना ज्यादा है। लेकिन उसमे भी 18 से 36 घंटे तक लग जायेंगे।
स्पेस में ग्रेविटी यानि गुरुत्वाकर्षण नहीं होता
आपने इंटर नेशनल स्पेस स्टेशन पर रह रहे एस्ट्रोनॉट्स या कॉस्मोनॉट्स को अंतरिक्ष में भार हींन होकर तरह तरह के करतब करते तो जरूर देखा होगा। इसके साथ हीं आपने उन्हें स्पेस स्टेशन के बहार स्पेस वॉक करते भी देखा होगा। इन एस्ट्रोनॉट्स को मछलियों की भांति स्पेस में तैरते देख कर आपको यह लग सकता है की अंतरिक्ष में ग्रेविटी नहीं होती।
लेकिन देखा जाए तो ग्रेविटी स्पेस के लगभग हर कोने में स्थित होती है। स्पेस स्टेशन पर रह कर भी आप धरती के ऑर्बिट में बने रहते हैं यानि धरती आपको दूर नहीं जाने देती है। उसके साथ साथ सूरज और चाँद की ग्रेविटी का असर भी आप पर पड़ता रहता है भले हीं इसका असर न के बराबर हो।
एस्टेरोइड बेल्ट में से गुजर पाना मुश्किल होता है
एस्टेरोइड बेल्ट मार्स यानि मंगल ग्रह और जुपिटर यानि बृहस्पति ग्रह के बीच स्थित उल्का पिंडो यानि चट्टानों और पत्थरों का समूह है जो ग्रहों की तरह सूरज के चक्कर काट रहे हैं। ज्यादातर फिल्मों में ऐसा दिखाया जाता है जैसे इनके बीच से गुजरने पर कोई यान या स्पेस क्राफ्ट इनसे टकरा जायेगा। इन फिल्मों में ऐसा भी दिखाया जाता है जैसे इनके बीच की दूरी काफी कम होती है। लेकिन असल में दो एस्टेरॉइड्स के बीच की औसत दूरी जान कर आप हैरान रह जायेंगे।
किन्हीं दो एस्टेरॉइड्स के बीच 6,00,000 मील यानि 9,66,000 किलोमीटर की औसत दूरी हो सकती है। ऐसे में एक छोटा सा स्पेसक्राफ्ट इनके बीच से गुजरे तो उसके इनसे टकराने की सम्भावना लगभग न के बराबर होगी। इसे ऐसे समझ लीजिये की एक चींटी किसी 10 किलोमीटर चौड़े मैदान से गुजर रही है और वो उसमें पड़े एक क्रिकेट बॉल से टकरा जाए। सव्भाविक है की ऐसा होना लगभग असंभव है। एक यान के सामने यदि कोई उल्का पिंड आ भी जाता है तो भी उसके पास अपना रास्ता बदलने के लिए बहुत समय होगा।
यहाँ तक की एक एस्टेरोइड पर यान टकराना तो छोड़िये उस पर लैंड करने में भी यूरोपियन स्पेस एजेंसी को सालों लग गए थे। ESA ने 12 नवंबर 2014 को चुरयुमोव गेरासीमेंको (67P/Churyumov-Gerasimenko) पर फिलए (Philae) नाम के स्पेस क्राफ्ट को लैंड किया था। यह लैंडर रोसेटा नाम के उपग्रह के साथ 6 अगस्त 2014 को इस उल्का पिंड के करीब पहुंचा था।
केवल शनि ग्रह में छल्ले यानि रिंग होते हैं
हम में से ज्यादा तर लोग यदि शनि ग्रह की कल्पना करते हैं तो हमें उसके रिंग जरूर याद आते हैं। लेकिन क्या सौर मंडल में शनि अकेला ग्रह है जिसके चारों ओर छल्ले होते हैं।
जी नहीं, यूरेनस और नेप्चून वो ग्रह हैं जिनके चारों तरफ भी आपको छल्ले देखने मिल जाएंगे। इनके छल्ले पृथ्वी पर लगे टेलिस्कोपस से शनि ग्रह जैसे साफ़ दिखाई नहीं देते हैं पर वायेजर 2 स्पेस क्राफ्ट जब इनके करीब से गुजरा था तो उसने इनकी साफ़ तस्वीरें लीं थी।