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पंखो और इंजन के बाद एक प्लेन को उड़ाने वाले बेहद जरूरी हिस्से

आप में से कई लोग एक हवाई जहाज़ के मुख्य हिस्सों जैसे इंजन, कॉकपिट या पंखो के बारे में जानते हीं होंगे या फिर इन्हें समीप से देखा भी होगा। लेकिन एक हवाई जहाज़ के इंजन और विंग्स के अलावा भी कई ऐसे हिस्से या पार्ट्स होते हैं जो एक प्लेन के उड़ने के लिए बेहद ज़रूरी होते हैं।

एक एयरक्राफ्ट के विंग्स यानि दोनों पंखों में हीं कई ऐसे हिस्से लगे होते हैं जिन पर अधिकतर लोगों का ध्यान शायद हीं कभी जाता होगा। लेकिन यदि इन हिस्सों में कोई गड़बड़ी हो जाए तो एक एयरक्राफ्ट का टेकऑफ़ या लैंडिंग करना भी संभव नहीं होगा। विमान के पंखों में लगे ये कंपोनेंट्स उड़ान के दौरान भी एक विमान को हवा में बनाये रखने के लिए बेहद ज़रूरी होते हैं।

आप में से कई लोग विमानों की तुलना उड़ने वाले पक्षियों से कर चुके होंगे लेकिन पक्षी अपने पंखों को बड़ी आसानी से ऊपर नीचे या आगे पीछे कर पाते हैं इसी विशेषता के कारण पक्षी बड़ी आसानी से अपनी उड़ान की दिशा या ऊंचाई में बदलाव कर सकते हैं। लेकिन एक विमान के पंख अपनी जगह पर फ़िक्स होते हैं और इनको आगे पीछे करना असंभव होता है।

पक्षी और विमान उड़ने के लिए एक ही फोर्सेज का प्रयोग करते हैं परन्तु पक्षियों और विमानों के उड़ने के तरीके में फ़र्क होता है।

लेकिन ऐसा भी नहीं है की एक विमान के पंख अपनी जगह से बिलकुल भी नहीं हिल सकते क्योंकि उड़ान के समय एक प्लेन के पंख अपनी तय जगह से बहुत ऊपर तक उठ जाते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि विमान के पंखों को थोड़ा बहोत लचीला बनाया जाता है और उसके पंखों के ऊपर हवा का दबाव पंखो के नीचे की तुलना में कम होता है और यही दबाव उसके पंखों और विमान दोनों को हवा में ऊपर की ओर उठाता है।

लेकिन ये पंख एक विमान को सीधी रेखा में उड़ान भरने योग्य बनाते हैं। विमान पक्षियों की भांति अपनी दिशा में तुरंत परिवर्तन नहीं कर पाते हैं। यदि विमान को अपनी दिशा, रफ़्तार या ऊंचाई में बदलाव करना हो तो पंखों के साथ साथ विमान में लगे अन्य कंपोनेंट्स को भी प्रयोग में लाया जाता है।

आइये हम नीचे विस्तार से समझते हैं की ऐसे कौन से हिस्से हैं जो एक विमान के उड़ान को संभव बनाते हैं और एक प्लेन की फ्लाइट के समय क्या भूमिका निभाते हैं और क्या इनके बिना एक विमान उड़ान भर सकता है। लेकिन सबसे पहले हम प्लेन के इंजन और उसके पंखों के बारे में भी आपको संक्षिप्त में बता दें।

प्लेन का इंजन

एक विमान का सबसे जरूरी और प्रमुख अंग उसका इंजन होता है। इंजन एक यात्री विमान के पंखों के नीचे लगा होता है। एक विमान के इंजन अलग अलग प्रकार के हो सकते हैं। विमानन के शुरुआती दिनों की बात करें तो तब यात्री विमानों से लेकर लड़ाकू विमानों में इंटरनल कंबशन इंजन होते थे जो पिस्टन द्वारा एक प्रोपेलर को चलाते थे। ये प्रोपेलर एक विमान के नाक या पंखों में लगा होता था।

आज के विमानों की बात करें तो शायद ही ऐसे विमान हों जो इंटरनल कमब्सशन इंजन का प्रयोग करते हों। वैसे प्रोपेलर वाले विमान आपको आज भी देखने मिल जायेंगे लेकिन इनमें लगे प्रोपेलर को घुमाने के लिए अब टरबाइन इंजन का प्रयोग किया जाता है जो अपनी डिज़ाइन और बनावट में एक इंटरनल कमब्सशन इंजन से बिलकुल अलग होता है।

विमानों में लगे टर्बोफैन टरबाइन इंजन पिस्टन वाले इंटरनल कम्बशन इंजन की तुलना में बहोत अधिक पावर जेनेरेट कर पाते हैं। इंटरनल कम्बशन इंजन से अलग इनके अंदर फ्यूल का जलना कभी नहीं रुकता और ये लगातार काम कर सकते हैं।

बोइंग या एयरबस द्वारा बनाये जाने वाले यात्री विमानों की बात करें तो इनमें टर्बोफैन टरबाइन इंजन लगे होते हैं। इन इंजन के आगे स्टील या टाइटेनियम मेटल के अलॉयज से बने ब्लेड्स लगे होते हैं जो हवा को अंदर खींचने में मदद करते हैं। इन ब्लेड के पीछे कम्प्रेशन चैम्बर होता है और उसके आगे कमब्सशन चैम्बर, जहाँ फ्यूल को जलाकर इंजन को चलाया जाता है।

ये इंजन अपने आगे से हवा को अपने अंदर खींच कर उसे अपने पीछे तेज़ रफ़्तार पर छोड़ते हैं जिसे ऐरोडायनेमिक्स की भाषा में थ्रस्ट कहा जाता है। जब ऐसा होता है तो इंजन में जाने वाली हवा के साथ उसके आस पास की हवा भी इंजन के ऊपर लगे विमान के पंखो से टकरा कर विमान के पीछे की ओर बहती है। जिस से लिफ्ट फाॅर्स उत्पन्न होता है और प्लेन को ऊपर की ओर उठाता है। यह थ्रस्ट और लिफ्ट फाॅर्स हीं विमान को हवा में बनाये रखने और आगे धकेलने के लिए जिम्मेवार होते हैं।

Forces acting on an airplane clickrola
एक विमान पर लगने वाले फोर्सेज लिफ्ट, ड्रैग, थ्रस्ट और ग्रेविटी होते हैं। ये सभी फोर्सेज अलग अलग दिशाओं में लगती हैं। एक विमान के उड़ने के लिए थ्रस्ट और लिफ्ट का ग्रेविटी और ड्रैग फाॅर्स से ज्यादा होना जरूरी है।

एक विमान में कैसे और कितने इंजन लगे होंगे यह विमान के प्रकार और उसे किस उपयोग में लाया जाने वाला है, इस बात पर निर्भर करता है। एक लड़ाकू विमान यानि फाइटर जेट प्लेन एक छोटे इंजन से भी काम चला लेता है। लेकिन एक यात्री विमान में दो से लेकर आठ इंजन तक लगे हो सकते हैं।

Qantas Airlines plane flying in the Sky.
लम्बी दूरी के विमानों में ज्यादातर चार इंजन लगे होते हैं। चार इंजन ज्यादा थ्रस्ट या पावर तो जेनेरेट करते हीं हैं पर इसके साथ साथ विमान ज्यादा वजन या यात्री लेकर भी उड़ पाता है। इसके साथ हीं विमान को आकार में भी बड़ा यानि डबल डेक का बनाया जा सकता है।

लेकिन बोइंग और एयरबस द्वारा बनाये जाने वाले ज्यादातर विमानों में दो या चार इंजन लगे होते हैं। यदि प्लेन लम्बी दूरी की यात्रा के लिए बनाया गया है तो उसमें दोनों पंखों में दो इंजन मिलाकर कुल चार इंजन लगे होते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि लम्बी दूरी की यात्रा करते समय यदि एक तरफ के पंख में लगे दोनों में से एक इंजन ख़राब भी हो जाए तो दूसरा इंजन उसका अतिरिक्त भार ले सकता है। वहीँ कम दूरी तय करने वाले जहाज़ों में आपको दो इंजन देखने मिलेंगे। लेकिन इन इंजिन्स का आकार चार इंजन वाले विमानों के इंजन से थोड़ा बड़ा होता है।

इस जानकारी को पढ़कर आपके मस्तिष्क में यदि ये विचार आ रहा है की कम दूरी वाले विमानों में चार इंजन क्यों नहीं होते, तो इसका जवाब ये है की दो इंजन वाले विमानों को ज्यादातर डोमेस्टिक फ्लाइट्स या कम दूरी के लिए प्रयोग में लाया जाता है। और ये विमान भूमि के ऊपर और शहरों के करीब से उड़ते हैं इसलिए यदि कोई इमरजेंसी हो भी जाए तो वो अपने निकटतम एयरपोर्ट पर आसानी से लैंड कर सकते हैं। यदि विमान 10000 मीटर यानि 33000 फ़ीट की ऊंचाई पर उड़ रहा है और उसके दोनों इंजन बंद भी हो जाएँ तो भी एक बोइंग 747 विमान 150 किलोमीटर की दूरी केवल ग्लाइड करके तय कर सकता है।

वहीँ लम्बी दूरी के विमानों को अपना ज्यादातर समय समुद्र के ऊपर उड़ते हुए बिताना पड़ता है और ऐसे में यदि विमान के सभी इंजनों में खराबी आ जाये तो विमान का समुद्र के सतह पर लैंड करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होता। ऐसा करने में विमान के दुर्घटना ग्रस्त होने के और यात्रीयों के जान को भी खतरा होता है। ऐसे में चार इंजन वाले विमान के एक इंजन में खराबी होने पर भी उसके हवा में बने रहने की सम्भावना ज्यादा होती है।

प्लेन के विंग्स या पंख

प्लेन के पंख इंजन के अलावा उसके सबसे जरूरी अंगो में से एक होते हैं। एक विमान के पंखों को ऐसा बनाया जाता है की यदि इंजन बीच उड़ान में बंद भी हो जाए तो भी वो विमान को कुछ मिनटों के लिए हवा में बनाये रख सकता है। उसके रफ़्तार और ऊंचाई में धीरे धीरे कमी जरूर आएगी लेकिन वो लगभग 150 किलोमीटर तक की दूरी ग्लाइड करते हुए तय कर सकता है और उस 150 किलोमीटर के रेडियस में स्थित अपने नज़दीकी एयरपोर्ट पर लैंड भी कर सकता है।

एक प्लेन के विंग्स को ऐसे बनाया जाता है की उसके ऊपर से होकर बहने वाली हवा लो एयर प्रेशर बनाती है और नीचे स्थित हवा हाई प्रेशर से गुज़रती है जिस से ऊपर की ओर लिफ्ट फाॅर्स का निर्माण होता है। लेकिन ऐसा होने के लिए हवा का विमान के पंखो के विपरीत दिशा में तेज़ी से गुज़रना आवश्यक है। एक विमान के इंजन अपने अंदर हवा को तेज़ी से खींचकर इसकी गति को बढ़ाते हैं या तकनिकी भाषा में कहें तो थ्रस्ट को पैदा करते हैं। थ्रस्ट से लिफ्ट फाॅर्स बनता है और विमान को ऊपर उठाता है।

जैसा की आप इस चित्र में देख सकते हैं की एक विमान का पंख ऊपर से गोलाईदार और नीचे से समतल होता है। पंखों का यही आकार एक विमान को उड़ने लायक बनाता है।

लेकिन क्या आप जानते हैं की एक विमान के पंखों में एविएशन फ्यूल यानि एयरक्राफ्ट के जेट ईंधन को स्टोर किया जाता है। जी हाँ एक यात्री विमान का ज्यादातर फ्यूल उसके पंखों में लगे टैंकों में स्टोर किया जाता है। जेट फ्यूल यानि एक जहाज़ को चलाने वाला तेल एक प्लेन के कुल भार में बहोत बढ़ोतरी कर देता है। एक एयरबस A320 विमान की बात करें तो उसके फ्यूल टैंक की मैक्सिमम कैपेसिटी 27200 लीटर होती है। इसे यदि किलो में कन्वर्ट करें तो लगभग 21 टन वजन के बराबर होता है। जबकि उसका मैक्सिमम टेक ऑफ वेट 78 टन होता है।

विमान के फ्यूल यानि ईंधन को उसके फ्यूजेलाज़ यानि बॉडी में लगे मुख्य टैंक और उसके पंखों में लगे टैंक में स्टोर किया जाता है।

टेक ऑफ़ वेट विमान के यात्रियों, ईंधन और सामान के साथ लेकर उड़ पाने वाले कुल वजन को कहा जाता है और इस वजन में स्वयं विमान का भार भी जुड़ा होता है। यानि केवल फ्यूल के वजन को हीं लें तो वो एक प्लेन के कुल टेक ऑफ वेट का एक तिहाई होता है। इसलिए फ्यूल टैंक को विमान में ऐसी जगह लगाना होता है जहाँ उसका वजन विमान के बीचो बीच हो या उसके सेंटर ऑफ़ ग्रेविटी के नज़दीक रहे। क्योंकि एक प्लेन के पंख जहाज़ के फ्यूजेलाज़ यानि मुख्य बॉडी के बीचो बीच जुड़े होते हैं इसलिए फ्यूल रखने के लिए ये स्थान सबसे उपयुक्त होता है।

एक प्लेन के विंग्स खोखले होते हैं इसलिए उनके अंदर बहुत जगह खाली होती है जिसका उपयोग फ्यूल टैंक्स लगाने के लिए किया जाता है। ऐसा करने के और भी कई फायदे होते हैं। जैसे की जब एक विमान उड़ रहा होता है तो उसके विंग्स पर पड़ने वाले लिफ्ट फाॅर्स और हवा के प्रतिरोध यानि ड्रैग के कारण दोनों विंग्स हवा में बहुत ऊपर की ओर मुड़ जाते हैं। ऐसे में विमान के पंखों में मौजूद फ्यूल का वजन इस मुड़ाव या तनाव को कम रखने में सहायता करता है और पंखों को ज्यादा मुड़ने से रोकता है।

एक विमान के पंखों को इतना लचीला बनाया जाता है की वो अपनी तय जगह से लगभग 15 फ़ीट ऊपर मुड़ सकते हैं। इस फोटोग्राफ में आप इस विमान के पंखों का ऊपर की ओर मुड़ाव साफ़ देख सकते हैं। विमान के पंखों में रखे ईंधन का भार इस मुड़ाव को तय सीमा से ऊपर नहीं बढ़ने देता है।

इसके अलावा विमान के डिज़ाइन इंजीनियरों की ये कोशिश भी होती है की विमान के फ्यूल को विमान के फ्यूजेलाज़ यानि यात्रियों के बैठने के स्थान से दूर रखा जाए। क्योंकि एक विमान के दुर्घटना ग्रस्त होने पर फ्यूल टैंक में आग लगने की सम्भावना भी रहती है।

इसके अलावा पंखो में लगे फ्यूल टैंक से फ्यूल, ग्रेविटी की सहायता से हीं इंजन तक पहुँच जाता है और इसे पंप करके इंजन तक पहुँचाना नहीं पड़ता है। क्योंकि फ्यूल टैंक एक समान कैपेसिटी के होते हैं और एक विमान के दोनों तरफ के पंखों पर एक बराबर दूरी पर लगे होते हैं इसलिए ये विमान को स्टेबिलिटी यानि स्थिरता देने में भी सहायता करते हैं और विमान दाएं बाएं नहीं झुकता।

प्लेन के पंखों में लगे अन्य पार्ट्स

एक प्लेन के पंखों मैं कई ऐसे हिस्से भी होते हैं जो आपको बिना ध्यान दिए शायद नज़र भी ना आएं लेकिन एक विमान के टेकऑफ, लैंडिंग और बीच उड़ान में प्लेन की दिशा में परिवर्तन के लिए अति आवश्यक होते हैं। एक विमान के दोनों पंखों के आगे वाले किनारे से लगे हिस्से को स्लैट कहा जाता है।

जबकि एक विमान के पंखों के पिछले छोर पर फ्लैप्स, स्पॉइलेर्स और ऐलेरोंन जैसे पार्ट्स लगे होते हैं। आइये हम नीचे संक्षिप्त में इन हिस्सों को समझाते हैं।

फ्लैप्स

एक विमान के फ्लैप्स उसके पंखों के पिछले छोर में लगे होते हैं और विमान के पंखो द्वारा उत्पन्न होने वाले लिफ्ट और ड्रैग फाॅर्स में जरूरत के अनुसार बढ़ोतरी या कमी करते हैं। जैसे हमने पहले बताया था की एक विमान के पंखो के ऊपर की सतह थोड़ी घुमावदार यानि कर्वेचर वाली होती है। इसी कर्व के कारण हीं एक विमान का पंख लिफ्ट फाॅर्स पैदा कर पाता है। यदि विमान के पंखों के ऊपर का करवेचर और सरफेस एरिया ज्यादा होगा तो उसे लिफ्ट फाॅर्स भी ज्यादा मिलेगा।

एक विमान के फ्लैप्स इसी सरफेस एरिया को बढ़ाने या कम करने में मदद करते हैं। इन फ्लैप्स को बाहर की तरफ सीधा निकाला जा सकता है और ये नीचे की तरफ झुक या मुड़ भी सकते हैं। जब ये फ्लैप्स सीधे होते हैं और पूरे बाहर निकले होते हैं तो एक प्लेन के ऊपर के कर्व और सरफेस एरिया दोनों में इज़ाफ़ा करते हैं और प्लेन ज्यादा तेज़ी से ऊपर उठ सकता है। ऐसा प्लेन के टेकऑफ के समय किया जाता है ताकि प्लेन जल्द से जल्द हवा में उठ सके।

जापान एयरलाइन्स के इस विमान में आप उसके पंखों के पिछले छोर पर लगे स्लैट्स को नीचे की ओर झुका हुआ साफ़ देख सकते हैं। एक प्लेन के फ्लैप्स एयरपोर्ट से उड़ान भरने के तुरंत बाद इसी अवस्था में होते हैं। क्रूजिंग औलटीटूड यानि जरूरी ऊंचाई प्राप्त कर लेने के बाद ये फ्लैप्स सीधे कर लिए जाते हैं।

वहीँ यदि ये फ्लैप्स बाहर निकले हों और बिलकुल नीचे ज़मीन की तरफ मुड़े हों तो ये प्लेन के लिफ्ट फाॅर्स को तो बढ़ाते हैं लेकिन ड्रैग में भी बढोत्तरी करते हैं यानि हवा से होने वाले रेजिस्टेंस को बढ़ा देते हैं और प्लेन अपनी इंजन पावर और रफ़्तार को ज्यादा कम किये बगैर ऊंचाई कम कर पाता है।

इन फ्लैप्स को ऊपर नीचे और आगे पीछे करने के लिए हाइड्रोलिक्स सिस्टम्स का प्रयोग किया जाता है जिसमें किसी हाइड्रोलिक्स फ्लूइड, जैसे तेल को पाइप्स, पिस्टन्स, सिलिंडर्स और कंप्रेसर से बने सिस्टम द्वारा गुज़ारा जाता है और भारी वजन को हिलाया या उठाया जाता है।

स्लैट्स

स्लैट्स विमान के पंखों के अगले किनारे पर लगे होते हैं और लगभग फ्लैप्स की तरह ही काम करते हैं।

एक विमान में स्लैट्स उसके पंखों के अगले छोर पर लगे होते हैं और इन्हें भी फ्लैप्स की भांति अंदर या बाहर किया जा सकता है। इन्हें भी एक विमान के पंखों के ऊपरी कर्वेचर यानि गोलाई या घुमाव को बदलने के लिए लगाया जाता है। इन्हें आप विमान के पखों के आगे लगे फ्लैप्स भी कह सकते हैं।

ऐलेरोंन

एक विमान के ऐलेरोंन उसके पंखो के पिछले छोर में बाहर की तरफ लगे होते हैं। इन्हें भी एक फ्लैप की तरह हीं हिलाया जा सकता है लेकिन फ्लैप्स पंखो के लेवल से ऊपर की तरफ नहीं मोड़े जा सकते हैं। वहीँ ऐलेरोंन को ऊपर या नीचे दोनों दिशाओं में मोड़ा जा सकता है।

विमान के ऐलेरोंन उसके पंखों के साथ साथ समूचे विमान को दाएं या बाएं झुकाने के लिए प्रयोग में लाये जाते हैं। एक विमान को दाएं या बाएं दिशा में मोड़ने के लिए ऐलेरोंन बेहद आवश्यक होते हैं।

एक विमान के दोनों ऐलेरोंन एक दुसरे के विपरीत दिशा में काम करते हैं। इसे ऐसे समझें की जब एक पंख का ऐलेरोंन ऊपर की तरफ मुड़ा होता है तो दूसरा नीचे की ओर मुड़ा होता है। जब ऐसा होता है तो नीचे की और झुके ऐलेरोंन वाला पंख हवा में ऊपर उठ जाता है और ऊपर की और मुड़े ऐलेरोंन वाला पंख नीचे की और झुक जाता है।

यानि सरल भाषा में कहें तो ऐलेरोंन एक विमान के दोनों पंखो को ऊपर नीचे करने के लिए उपयोग में लाये जाते हैं। इसे ऐरोडायनेमिक्स की भाषा में रौल भी कहा जाता है। एक विमान को जब दाएं या बाएं मोड़ना होता है तो ऐलेरोंन को विमान के पीछे वर्टीकल स्टेबलाइजर में लगे रडर के साथ चलाया जाता है।

स्पॉइलर्स

स्पोइलर एक प्लेन के पंखों के ऊपर वाली सतह पर लगे मेटल शीट्स होते हैं जिन्हे फ्लैप्स की तरह ऊपर किया जा सकता है। क्योंकि ये प्लेन के ऊपर वाली सतह पर लगाए जाते हैं इसलिए इन्हे पंखों के लेवल से नीचे नहीं किया जा सकता है और केवल ऊपर की ओर खोला जा सकता है।

इस विमान के पंखों के ऊपर आपको ऊपर की ओर खुले स्पॉइलर्स दिखाई दे रहे होंगे। ये विमान की गति में कमी करने के लिए प्रयोग में लाये जाते हैं। इस फोटो में दिख रहे स्पॉइलर्स को इन फ्लाइट स्पॉइलर्स कहा जाता है। वहीँ इनके बगल में ग्राउंड स्पॉइलर्स लगे होते हैं जो इनसे आकार में थोड़े बड़े होते हैं।

ये मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं। पहले ग्राउंड स्पॉइलर्स कहलाते हैं जो एक प्लेन के लिफ्ट फाॅर्स को पूरी तरह से ख़त्म कर देते हैं और दुसरे इन फ्लाइट स्पोइलर कहलाते हैं जो बीच उड़ान में एक प्लेन के लिफ्ट को थोड़ा कम करते हैं। ग्राउंड स्पॉइलेर्स प्लेन के लैंडिंग के समय हीं प्रयोग में लाये जाते हैं। जबकि इन फ्लाइट स्पॉइलेर्स का प्रयोग विमान के हवा में होने पर किया जाता है।

जब प्लेन लैंड करता है तो ग्राउंड स्पॉइलेर्स अपने आप एक्टिव हो जाते हैं और प्लेन की रफ़्तार को बिलकुल कम करने के लिए यूज़ होते हैं। वहीँ इन फ्लाइट स्पॉइलेर्स का कण्ट्रोल पायलट और ऑनबोर्ड फ्लाइट कंट्रोलर कंप्यूटर के हाथों में होता है और यह प्लेन की स्पीड में धीरे धीरे कमी लाता है।

विंग्लेट

इस टर्किश एयरलाइन्स के विमान की खिड़की से दिखाई दे रहे पंख के आखरी छोर पर आपको विंग्लेट नज़र आ रहा है।

विंग्लेट एक विमान के पंखों के अंतिम छोर को कहा जाता है। ये ज्यादातर लम्बी दूरी के यात्री विमानों में हीं लगाए जाते थे परन्तु अब ये लगभग हर यात्री विमान में देखने मिल जाते हैं। ये विंग्लेट विमान के पंखों के अंतिम छोर पर होने वाले ड्रैग को कम करती हैं। जैसा की हमने आपको पहले बताया की एक प्लेन के पंखों के ऊपर हवा का दवाब नीचे की तुलना में कम होता है। और प्लेन के पंखों के अंतिम छोर या नोख पर ये हाई प्रेशर हवा के वोर्टेक्स यानि छोटे छोटे भंवरों का निर्माण करती हैं जो ड्रैग को बढाती हैं और प्लेन के इंजन को ईंधन ज्यादा जलाना पड़ता है। इस समस्या से निपटने के लिए विंग्लेट प्रयोग में लाये जाते हैं।

एक बड़े पंखों वाले यात्री विमान में विंगलेट एक पंख के सरफेस एरिया को भी बढ़ा देते हैं जिस से प्लेन के लिफ्टिंग की क्षमता में भी बढ़ोतरी होती है। अलग अलग यात्री विमानों में आपको अलग अलग तरह के विंग्लेट देखने को मिलेंगे। एयरबस द्वारा बनाये जाने वाले विमानों में विंगलेट ऊपर की ओर होते हैं। इन्हें ऊपर की ओर मोड़ने से पंखों की लम्बाई कम रखने में सहायता मिलती है। इस से विमान ज्यादा संकीर्ण एयरपोर्ट्स के बोर्डिंग गेट्स या हैंगर्स में आसानी से घुंस पाता है।

विमान के पूँछ यानि एमपेनाज़ में लगे मुख्य अंग

यदि आपको यह लगता है की विमान को उड़ाने वाले अंग केवल उसके मुख्य पखों में लगे होते हैं तो आप गलत हैं। आपको बता दें की एक विमान के पूँछ में लगे हिस्से एक विमान को स्टैबिलिटी देने के लिए और प्लेन के दिशा में परिवर्तन करने के लिए बेहद आवश्यक होते हैं।

इस विमान के एमपेनाज़ यानि पूँछ में लगे वर्टीकल स्टेबलाइजर यानि सीधे खड़े पंख पर आपको जापान एयरलाइन्स का लोगो या चिन्ह दिखाई दे रहा है।

एक प्लेन के पीछे लगे तीनों टेल फिन्स को एक विमान का एमपेनाज़ कहा जाता है जो की फ्रेंच शब्द ‘एमपेन्नर’ से लिया गया है। फ्रेंच भाषा में एक तीर के पीछे लगे पंखो को ‘एमपेन्नर’ कहा जाता है। एक विमान के एमपेनाज़ में लगे सीधे खड़े फिन को प्लेन का वर्टीकल स्टेबलाइजर कहा जाता है। वहीँ प्लेन के एमपेनाज़ में दाएं और बाएं लगे दोनों फिन्स को हॉरिजॉन्टल स्टेबलाइजर कहा जाता है। इसके साथ साथ इन सभी स्टेबलाइजरों में फ्लैप्स जैसे हिस्से लगे होते हैं।

हॉरिजॉन्टल स्टेबलाइजर भी फ्लैप्स की तरह ऊपर नीचे किये जा सकते हैं पर इन्हें थोड़ा बहुत हीं झुकाया जा सकता है। दोनों हॉरिजॉन्टल स्टेबलाइजर में लगे फ्लैप्स जैसे दिखने वाले हिस्सों को एलीवेटर कहा जाता है। ये एलीवेटर हॉरिजॉन्टल स्टॅब्लिज़ेर की तरह हीं ऊपर नीचे किये जा सकते हैं।

वर्टीकल स्टेबलाइजर प्लेन को स्थिर रखने में सहायता करता है और प्लेन को दाएं बाएं मोड़ने के लिए बहोत जरुरी होता है। वर्टीकल स्टेबलाइजर में फ्लैप्स जैसा दिखने वाला हिस्सा रडर कहलाता है। आइये जानते हैं की ये हिस्से कैसे काम करते हैं।

रडर

रडर एक विमान के पूँछ में लगे वर्टीकल स्टेबलाइजर यानि ऊपर की ओर सीधे खड़े पंख में लगा होता है। ये विमान को दाएं या बाएं मोड़ने के लिए उपयोग में लाया जाता। एक पायलट इसे दाएं या बाएं मोड़ सकता है। एक रडर को हमेशा एक विमान के मुख्य यानि इंजन वाले पंखों में लगे स्पॉइलर्स और ऐलेरोंन के साथ ही इस्तेमाल करना होता है।

एक विमान कभी भी अचानक यानि एक हाई एंगल पर अपने डायरेक्शन में बदलाव नहीं कर सकता है। इसे एक गोलाईदार यानि कुर्वनुमा पाथ में जाना होता है। विमान ऐसा करने के लिए अपने ऐलेरोंन को विपरीत दिशा में मोड़ते हैं और इसके साथ साथ पीछे लगे रडर को भी उस दिशा में मोड़ा जाता है जिस दिशा में प्लेन को मुड़ना है।

मान लीजिये की एक प्लेन को दाएं मुड़ना है तो ऐसे में प्लेन जिस दिशा में जा रहा है उस से दाईं ओर के बड़े पंख का ऐलेरोंन ऊपर की और मुड़ेगा और बाएं वाले पंख का ऐलेरोंन नीचे की और मुड़ा होगा। जब विमान ऐसा करता है तो उसके दायीं ओर का पंख नीचे यानि जमीन की दिशा में झुक जाता है। और उसके बाईं और का पंख आकाश में ऊपर की ओर उठ जाता है।

जब प्लेन ऐसा कर रहा होता है तो पीछे पूँछ में लगे रडर को दाएं मोड़ा जाता है जिस से उसकी पूँछ बाईं ओर और नाक दाईं ओर मुड़ने लगती है। और विमान भी धीरे धीरे एक गोलाकार रास्ता बनाता हुआ दाएं मुड़ने लगता है। इन सब के साथ कभी कभी स्पॉइलर्स या फ्लैप्स का इस्तेमाल भी करना पड़ सकता है ताकि प्लेन के रफ़्तार, लिफ्ट और ड्रैग को संतुलित रखा जा सके।

जब प्लेन दाएं दिशा में पूरा मुड़ जाता है तो ऐलेरोंन, स्पॉइलर्स और रडर, सभी को सीधा कर दिया जाता है।

एलिवेटर्स

एक प्लेन के एलिवेटर्स उसके पीछे वाले दोनों हॉरिजॉन्टल स्टेबलाइजर में लगे होते हैं। जैसा के नाम से ही ज्ञात होता है, एक प्लेन के एलिवेटर्स एक प्लेन के नाक को ऊपर या नीचे उठाने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। एक विमान के फ्लैप्स और ऐलेरोंन की तरह इन्हे भी ऊपर या नीचे मोड़ा जा सकता है। विमान के दोनों एलिवेटर्स एक साथ चलाये जाते हैं और दोनों एक समान दिशा में हीं मुड़ते हैं।

जब एलीवेटर जमीन की तरफ नीचे झुके होते हैं तो प्लेन के नाक को नीचे झुकाते हैं यानि प्लेन नीचे की ओर डाईव करता है और यदि ऊपर की ओर मुड़े हों तो प्लेन के नाक को ऊपर उठाते हैं। इनका इस्तेमाल ज्यादातर टेकऑफ या लैंडिंग के समय किया जाता है जब प्लेन को अपने ऊंचाई में परिवर्तन करना होता है। एलिवेटर्स भी एक प्लेन के फ्लैप्स के साथ इस्तेमाल किये जाते हैं।

फ्यूल टैंक

आपको यह जानकर हैरानी हो सकती है लेकिन प्लेन के फ्यूल को उसके पूँछ में और उसमें लगे हॉरिजॉन्टल स्टेबलाइजर में लगे फ्यूल टैंक्स में भी स्टोर किया जाता है। स्टेबलाइजर के अंदर की अधिकतर जगह खाली होती है जिसमें एविएशन इंजीनियरों ने फ्यूल टैंक लगा दिया। ये फ्यूल प्लेन के पूँछ में लगे ऑक्सिलरी पावर यूनिट यानि APU इंजन को चलाने के लिए यूज़ किया जाता है।

APU जहाज़ के मुख्य इंजन जैसा हीं होता है पर आकार और क्षमता में उस से कम होता है। APU से चलने वाला इलेक्ट्रिक जनरेटर एक विमान को बिजली देता है और जहाज़ के मुख्य इंजनों को चालू भी करता है। जब एक प्लेन के पंखों और सेंट्रल टैंक में रखा तेल समाप्त हो जाए तो प्लेन पूँछ में लगे टैंक्स से तेल ले सकता है।

फ्यूल टैंक को पूँछ में लगाने के पीछे एक कारण यह भी है की दुर्घटना के दौरान एक विमान के पंखों के साथ उसकी पूँछ भी सबसे पहले अलग हो जाती है। यदि फ्यूल टैंक में आग लगती भी है तो वो यात्रियों से दूर रहेगा।

इन सब हिस्सों के अलावा भी एक विमान में कॉकपिट, लैंडिंग गियर, ऑनबोर्ड फ्लाइट कंट्रोलर कंप्यूटर, कार्गो बे, दरवाजे, इमरजेंसी दरवाजे, फ्लाइट डाटा रिकॉर्डर, जीपीएस, कम्युनिकेशन ऐन्टेना, फ्यूजेलाज़ यानि उसका मुख्य बॉडी जैसे हिस्से होते हैं। जिन्हें हम किसी और आर्टिकल में विस्तार से समझायेंगे।